सरकारी बैंकों के लाखों करोड़
रुपए औद्योगिक घरानों द्वारा न लौटाना और उस धन को फंसे हुए कर्ज (एनपीए) की
श्रेणी में डालना देश और आम जनता के पैसे की खुली लूट है। यह कोई नई घटना नहीं है, पहले भी ऐसा
खूब होता रहा है। विजय माल्या की किंगफिशर एयरलाइन्स पर बकाया कर्ज के बारे में
काफी लोग जानते हैं। अंतर केवल यही है कि इस बार रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर
ने स्वयं इसे उजागर किया है। उन्होंने बार-बार इस पर अपनी चिंता जाहिर की है।
सरकारी बैंकों के लाखों करोड़ रुपए दबाए बैठे उद्योगपति और औद्योगिक संगठन आज इस पर
पूरी तरह चुप्पी साधे बैठे हैं। दूसरी ओर, यही लोग किसानों की कर्ज माफी का विरोध करते हुए कहते हैं कि
इससे देश की अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ता है, राजस्व का नुकसान होता है, राजकोषीय घाटे
में इजाफा होता है। यही लोग उर्वरकों पर दी जाने वाली सबसिडी का विरोध करते हैं, लेकिन खुद
लाखों करोड़ डकार कर भी जुबान नहीं खोलते। आज इनके समर्थक अर्थशास्त्री भी इस
मुद्दे पर मूकदर्शक बने हुए हैं। क्या इससे देश की आर्थिक स्थिति मजबूत होगी? लगभग तीन वर्ष
पूर्व योगगुरु रामदेव ने विदेशों में जमा काला धन के खिलाफ खूब आंदोलन चलाया था और
भाजपा ने इसे चुनावी मुद्दा भी बनाया था। काला धन जमा करने वालों को देशद्रोही भी
कहा गया था। फिर, इस प्रकार देश के धन को लूटने वालों को क्या कहा जाए? यह मामला भी
काले धन के मामले से कम गंभीर नहीं है। यह राजनीति, पूंजी और संस्थाओं की मिलीभगत
का नमूना है। इस तरह जनता से एकत्रित पैसे की बरबादी कई अत्यंत शोचनीय है। साधारण
लोगों पर बकाया कर्ज की वसूली के लिए बैंक क्या हथकंडे अपनाते हैं, इससे हर
नागरिक परिचित है। कुछ सौ या हजार रुपए बकाया होने पर भी बैंक या तो रिकवरी एजेंट
भेज कर लोगों को तंग करते हैं या फिर मुकदमे दर्ज कर उसकी संपत्ति जब्त कर ली जाती
है। जबकि, भारी
रकम बकाया होने के बावजूद उद्योगपतियों को बैंक फिर से कर्ज दे देते हैं। मामला
क्योंकि उद्योगपतियों का है, इसलिए सरकार और बैंक के अधिकारी हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। बकाया
रकम की वसूली के लिए कदम उठाने और नहीं देने की स्थिति में डिफाल्टर घोषित कर
संपत्ति जब्त कर लेने के स्थान पर सरकार इन बैंकों को सहायता देने की जो योजना बना
रही है, वह
उद्योगों को अप्रत्यक्ष सबसिडी नहीं तो और क्या है? इसका असर तो आम आदमी और देश को
ही झेलना पड़ेगा। (समरेंद्र कुमार, दिल्ली विश्वविद्यालय) ……………..
तिल का ताड़ जेनयू के घटनाक्रम के बाद यही प्रतीत
होता है कि सोशल मीडिया वाकई कितना ताकतवर और प्रभावशाली हो चला है कि किसी भी
मुद्दे पर तिल का ताड़ बनाने में कतई देरी नहीं करता! इस मीडिया के तमाम माध्यमों
से प्राप्त जानकारी के आधार पर किसी भी चिंगारी को भयावह आग में तब्दील होने में
जरा भी समय नहीं लगता! महज सोशल मीडिया से मिली ऐसी जानकारी पर तर्क-वितर्क करना
और जेनयू जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय को राष्ट्रद्रोही बताना उचित नहीं है। आज
के समय में सोशल मीडिया पर हर व्यक्ति अपने आप में एक स्वतंत्र पत्रकार है। तो ऐसे
में हमें संवाद का रास्ता अपनाना चाहिए न कि हिंसक प्रदर्शनों और रैलियों का। साथ
ही, अपना
कोई भी निर्णय सुनाने से पहले न्यायालय के फैसले का इंतजार करना चाहिए और संयम से
काम लेना चाहिए। (हर्ष चेतीवाल, बहादुरगढ़, हरियाणा) ………………. चिंता की बात जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के बाद जादवपुर
विश्वविद्यालय में भी देश-विरोधी नारे लगना चिंता की बात है। देश और संसद को एक
स्वर में इसका विरोध करना चाहिए और अविलंब इसकी जांच कर दोषियों को चिह्नित तथा
विधि सम्मत दंड दिया जाना चाहिए। लेकिन बगैर तथ्यात्मक जांच और निष्कर्ष के किसी
को भी देशद्रोही घोषित करने की प्रवृत्ति पर रोक लगनी चाहिए। इन घटनाओं में
मुट्ठीभर लोगों की भूमिका है, उनकी नकारात्मक गतिविधि के लिए दुनिया भर में जेएनयू जैसे
प्रतिष्ठित संस्थान को बदनाम करना अनुचित है। यह संस्थान देश के गौरव और महत्त्वपूर्ण
आस्तियों (असेट्स) में है। ऐसी घटनाओं की आड़ में राष्ट्रवाद के नाम पर उत्तेजना, उद्वेलन और
उत्पात फैलाने वाले राष्ट्र का ही नुकसान कर रहे हैं और राष्ट्रविरोधी तत्त्वों के
मंसूबों को कामयाब करते हैं। न्यायालय परिसर में मीडियाकर्मियों, सर्वोच्च
न्यायालय द्वारा नामित अभिभाषकों और जेएनयू छात्रसंघ के गिरफ्तार अध्यक्ष कन्हैया
कुमार पर वकीलों के एक समूह का हमला बहुत ही गंभीर चिंता की बात है। कानून के ये
जानकार ही जंगलराज और अराजकता का संदेश देंगे और निर्णय व सजा देने का काम करेंगे
तो लोगों के विश्वास का क्या होगा? विधायक के तौर पर निर्वाचित जनप्रतिनिधि खुलेआम मारपीट करे और ‘बंदूक होती तो
गोली मार देता’ जैसे
उद्गार व्यक्त करे और सारे प्रमाणों के बाद पुलिस अज्ञात के विरुद्ध अपराध दर्ज
करे तो मानवाधिकार, संवैधानिक अधिकार और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा कौन करेगा? (सुरेश
उपाध्याय, गीतानगर, इंदौर) ………………. कर्ज
और फर्ज देश भर के शिक्षण संस्थानों में करोड़ों रुपए के खर्चे पर चिंता जाहिर की
जा रही है। सरकार भी इसे कर देने वालों की मेहनत के पैसे की बरबादी बता रही है।
लेकिन हमें समझना होगा कि यह सरकार की बैंकों के डूबे कर्ज से ध्यान हटाने की
साजिश है। अगर उसे करदाताओं के पैसे की इतनी ही चिंता है तो उद्योग घरानों पर कर्ज
के लाखों करोड़ रुपए क्यों माफ कर दिए गए? इतने पैसों से तो देश के कई हिस्सोंं में गरीबी मिटाई जा सकती
थी। एक और सवाल यहां उभर रहा है कि जब किसानों के कर्ज की बारी आती है तो बैंक
इतना दबाब डालते हैं कि किसान आत्महत्या पर मजबूर हो जाता है लेकिन अमीरों के कर्ज
को सरकार यों ही माफ कर देती है। उसकी खबर भी आमजन को नहीं लगने देती। सरकार कर
देने वालों की मेहनत पर घड़ियाली आंसू बहाने का नाटक क्यों करती है? आखिर सारे सवाल
गरीबों के कर्जे और खर्चों पर ही क्यों उठाते हैं? (विनय कुमार, आईआईएमसी, नई दिल्ली
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